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मन का रेडियो

खिड़कियां
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शायद साठ के दशक का एक अमेरिकन एड
शायद साठ के दशक का एक अमेरिकन एड

आजकल पुराने दिनों को याद करना एक फैशन सा हो चला है। बहुत पुराने नहीं- यानी रिसेंट पास्ट। फिल्में भी कुछ इसी अंदाज में बन रहीं हैं, वे सत्तर या साठ के दशक में झांकने की कोशिश करती हैं। रेट्रो लुक तो फैशन और डिजाइन का एक अहम हिस्सा बन चुका है। पश्चिम के पास याद करने को काफी दिलचस्प छवियां हैं। खास तौर पर साठ का दशक, जब सीन कॅनरी जेम्स बांड हुआ करते थे, पत्रिकाओं में कंधे तक कटे हुए बालों वाली खूबसूरत युवतियों के स्केच पब्लिश होते थे, जैज़ संगीत, सिगार, पुरानी शराब, टिकट…

उतना ही या उससे भी कहीं ज्यादा दिलचस्प होगा, यदि हम अपने रिसेंट पास्ट में झांकने की कोशिश करें। मुझे फिलहाल इस वक्त सिर्फ आवाज पर बातें करने को दिल चाहता है। मेरी उम्र के तमाम लोगों को अपने बचपन में विविध भारती से गहरा और नाम के अनुरूप विविधता से भरा लगाव होगा।

तब मेरी मां शाम को नौ बजे तक सारा काम खत्म करके घर की सारी लाइट बुझाकर आराम करती थीं। रेडियो बजता रहता था। उसके ऊपरी कोने से एक नीली रोशनी झिलमिलाती रहती थी, घड़ी देखने की जरूरत नहीं। हर कार्यक्रम का वक्त तय था तो उसके मुताबिक वक्त गुजरने का अहसास होता जाता था, अब भैया के कोचिंग से आने का वक्त हो रहा है, अभी पापा आफिस से देर रात तक का काम निपटा कर आ रहे होंगे.. अब रात गहरा रही है, अब सोने की टाइम हो चला है…

मुझे जो याद रह गया है वह है रेडियो पर चलने वाले फिल्मों के एड- फिल्म शालीमार, बिन फेरे हम तेरे, थोड़ी सी बेवफाई, जानी दुश्मन.. इनके गीत का एक टुकड़ा, कुछ संवाद और फिल्म की टैगलाइन। बस, तैयार है एक शानदार एड। मानें या न मानें, कुछ एड तो इन्हीं की मदद से इतने शानदार बना करते थे कि मन होता था कि कब फिल्म सिनेमाहाल में लगे और कब जाकर उसे देख आएं।

मेरे बचपन का जादुई डब्बा
मेरे बचपन का जादुई डब्बा

इतना ही नहीं, फिल्मों के एड पंद्रह मिनट के एक प्रायोजित कार्यक्रम के रूप में आया करते थे। इसमें दो एंकर होते थे, एक स्त्री स्वर और दूसरा पुरुष। आपस बातचीत और दर्शकों से रू-ब-रू होने का अंदाज। कुछ किरदारों से परिचय कराया जाता था, कुछ कहानी आगे बढ़ाई जाती थी, कुछ संवाद, कुछ गीत… आपकी उत्सुकता के लिए बहुत कुछ छोड़ा भी जाता था। किस्सा अपने सबसे बेहतर रुप में तभी होता है जब वह कहा जाता है… तो कहन की यह शैली इतनी असरदार थी कि आज भी मेरे मन में सिर्फ उन प्रायोजित कार्यक्रमों की बदौलत फिल्म की थीम के बारे में इतनी गहरी छवि बैठ गई है कि वैसी छवि बैठाना शायद आज दर्जन भर प्रमोशनल और ब्रैंड एक्टीविटी के बाद भी नहीं संभव हो पाएगा। इक्का-दुक्का उदाहरण तो अभी याद हैं, बिन फेरे हम तेरे- एक परिवार की त्रासदी की कहानी, जानी दुश्मन- गांव, ईर्ष्या, दुष्मनी, रहस्य, थोड़ी सी बेवफाई- पति-पत्नी, विश्वास और प्यार।

कुछ दिलचस्प कैरेक्टर भी थे। मोदी कांटीनेंटल टायर वालों का एक कार्यक्रम था, अभी मुझे उसका नाम नहीं है, पर उसमें संता और बंता जैसे दो सरदार ड्राइवर थे और लंबे सफर में वे अजब-गजब ठिकानों पर रुकते-पहुंचते थे और नायाब एडवेंचर को अंजाम देते थे। एसकुमार का फिल्मी मुकदमा दरअसल एक इंटरव्यू होता था, मगर एक दिलचस्प मुकदमे की शक्ल में। और सबसे दिलचस्प होता था गीतों भरी कहानी। आधे घंटे में एक शानदार कहानी और उसमें पिरोए हुए चार-पांच गीत।

यह रेडियो था, जिसकी धुन तब हर घर से उठती थी। सुबह समाचार वाचक की आवाज, तो रात नौ बजे हवामहल की सिगनेचर ट्यून। दोपहर को नई फिल्मों के गीत और तीन बजे तबस्सुम की आवाज। रविवार को बालगीत और बच्चों की तोतली आवाज में कविताएं। सब कुछ अपने बीच का था। हवा में हम थे- हमारी हंसी, हमारी आवाज, हमारी गीत।

मन के इस रेडियो में आज भी वो आवाजें गूंजती हैं। अगली बार शायद किसी और धुन की याद आ जाए तो जरूर आपको बताऊंगा, शायद आपकी यादें भी किसी फ्रिक्वेंसी पर ट्यून हो जाएं, उम्मीद है जरूर शेयर करेंगे…

Dinesh Shrinet

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